एक दिन,
सम्राट के ताज में जड़े एक़ ईठलाते मोती से ,
इक अदनी सी ओस की बूंद ने,
चिरौरि कर,
ओस से मोती बनने का राज जान लिया,
सीप,समुद्र, नक्षत्र का सहज गणित था,
मान लिया
नानी दादी से सुना था,
हर ओस में मोती बनने का ग़ुण विद्धमान है;
हर ओस क़ो मोती बनने का जन्मसिद्ध अधिकार है,
और.... यही संविधान है
फिर पुर्णिमा की एक रात,
स्वाति नक्षत्र के पावन काल में,
नियति की गणित से बेखबर,
भोली ओस ने
समुद्र मे बलखाती एक सीप को लक्ष्य मानकर,
अगले क्षण मोतीकरण निश्चित जानकर,
कल्पनाओं में झुमती,
सम्राट या सुन्दरी,
कभी यह कभी वह चुनती,
आखें बन्दकर
छलांग लगा ही दी:
मगर यह क्या ?
जब आँख खुली
वह कहीं ओर पडी थी,
सागर की मदमाती लहरों पर हर पल बिखरती हुई!
टुकडों में बंटते अपने वज़ुद को
लाचार आँखों से निहारती रही
और सीप
पास ही पड़ा हवा क़ा गणित समझा रहा था
penned by me on 21/09/1993
मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है
1 year ago
1 comment:
वैसे तो यह पंक्तिया सैकड़ो बार आपके मुँह से सुनी है, पर यह आज भी उतनी ही ताज़ा और प्रेरणादायक लगती है. कृपया लिखते रहें.
Post a Comment